भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आकाश का ही है / नंदकिशोर आचार्य
Kavita Kosh से
नहीं, पेड़ का नहीं है आकार
न चट्टान या पर्वत-शिखर का है
वह आकाश का ही है
उन से उजागर है।
इसलिए शिल्पी ने तराशा है जो बुत
वह भी तो पत्थर की कहाँ
आकाश की लय है !
तब यह जो असीम में फैलती है
छोटी हथेली मेरी
वह भी क्या आकाश की ही है ?
कि उस का होना ही
आकाश की लय है !
तो फिर कहाँ जा कर पार है ?
क्योंकि हथेली पर भी हैं रेखाएँ
और वह आकाश उन का है।
(1976)