जख़्मों से
कुछ दूर सही
झुलसी हुई
खुशी मिली!
जलने को ग़म
कुछ कम न थे
जो ये एक
और मिली।
आख़िर कब तक आँसू
इनकी तपन बुझाएँगे ?
एक दिन तो
सूख जाएँगे
फिर जख़्म - ए ग़म
झुलसी खुशियाँ
मैं और
सूखी आँखें होंगी
कितना भी
आज़ाद करो मन
इस खुले
आकाश के ऊपर
चारों ओर
सलाखें होंगी।