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आखर-आखर गान धरा का / कुमार रवींद्र

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साधो !
तुमने सुना नहीं क्या
हर पल चलता आखर-आखर गान धरा का

भोर हुए पंछी
उजास का गीत सुनाते
जन्म धूप का जब होता
वे सोहर गाते

पूरे दिन
होता रहता है
धूप-छाँव में भीतर-बाहर गान धरा का

हवा नाचती
पत्ते देते ताल साथ में
दिन-बीते तक
बच्चे हँसते बात-बात में

मेघ गरजते
बरखा होती
मेढक गाते रात-रात भर गान धरा का

रोज़ आरती होती वन में
साँझ-सकारे
अनहद नाद सुनाते गुपचुप
चाँद-सितारे

दिन बर्फ़ीले भी
आते हैं
और तभी होता है पतझर-गान धरा का