भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आख़िरकार / विजयदेव नारायण साही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आख़िरकार कायरता ही
बची रहती है
चुप रहो
अपनी प्रार्थनाओं को लेकर चुप रहो

मैं इतना ही तय करता हूँ
कि आज सड़क पर एक क़दम
चलूँगा
पैर उठाते ही
कोई पीछे से कालर पकड़ कर खींचता है
किस से पूछ कर पैर उठाया।

आख़िरकार...