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आग और सपना / प्रज्ञा रावत

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(एक)

क्या करूँ इस सपने का
जिसमें आँख बंद करते ही
अवतरित होते हैं बिरजू महाराज
अपनी पकी उम्र में पान का बीड़ा दबाए

तीखी मुस्कुराहट और तिरछी आँखों के साथ
वो चक्करदार परण करते हुए
नाचते चले जाते हैं
सहसा हथेली के बिनौले से छूटकर
हवा में तैरती रुई की मानिंद

होते हैं गुदई महाराज
उँगलियों की फिरकनी को घुमाते
कब्जे में करते समय की ताल
और लय की तरंगों को

आकर धीरे से तानपूरा
मिलाती हैं बेग़म अख्तर
अपने अन्दर समाये जैसे सारे समुद्र का पानी
बेसुध होकर गाती हैं...

कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया...
.... हम तो समझे थे के बरसात में बरसेगी शराब
आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया

इन सब बानगियों को अपनी
शहनाई की मिश्री में घोलकर
नाचती आँखों से जब अठखेलियाँ
करते हैं ख़ाँ साहब तो
बिस्मिल्लाह होता है समय का पहिया

मैं शब्द ढूँढ़ती हूँ इस सबको
कह पाने के लिए और
महसूस करती हूँ एक उँगली की छुअन
जो इशारा करती है
चारों तरफ फैल रही अमानवीयता की तरफ

उस उँगली की छुअन, और वो स्पर्श
जो मेरे माथे पर
अपनी हथेली से मुझे आशीष रहा है
पहचान जाती हूँ उसे भी

पहचान जाती हूँ पिता की जली हथेली
वो हथेली जिसने कैसे-कैसे
हाथ में आग थामकर
अपने आसपास को सलीकेदार बनाया
हमें सलीका सिखाया

इस सपने को देख पाने का
हुनर बताया
हमें हुनरमंद बनाया
पिता तुम्हें बारम्बार सलाम
सलाम पिता तुम्हें।

(दो)

वो अक्सर बोल देती है
अपने दिल की बातें सबसे
खोल देती है अपना मन
हर बार भूल जाती है
नफ़रत करना किसी एक से
हर बार डाँट खाती है अपनों से
कि वो बहुत अनाड़ी
कोई भी बुद्धू बना ठग ले जाय उसे
रो गाकर सुनाकर अपनी व्यथा-कथा
और मानो न मानो हर बार
हुआ भी है कुछ ऐसा ही उसके साथ
पर सच बताऊँ तो वो दुनिया
ऐसी ही देखना चाहती है
चाहती है ऐसा ही निष्कपट संसार
जहाँ विश्वास और अपनत्व की बची-खुची
आस फिर जी उठे
जी उठे आदमी का मन आदमी के लिए
जानती है ऐसे घोर अविश्वासी समय में
वो बावरी ही कहलाएगी
फिर भी उम्मीद की इस लौ को
आखि़र तक जलाएगी
जलती हथेलियों से ही सही
बचाएगी उस लौ का आखि़री हिस्सा
उसे ताक़त देना घर के लोगों।