या तो हम बेवकूफ़ थे
या सनकी
या फिर दीवाने
जो ताउम्र मानते रहे कि
कविता से बदली जा सकती है दुनिया
शब्द कर सकते हैं हृदय-परिवर्तन
कैसी असहज सोच लेकर
चलते रहे उम्र भर
हुआ इतना भी नहीं कि
बदलते देख सकते
अपने घर या आसपास को
अपने स्वप्नों के मुताबिक
हम असामान्य थे
जो विशिष्टताबोध लेकर जीते रहे और
होते इतने भोले-मासूम कि
लोगों की उपेक्षाओं को माफ किया
एक दर्शन के तहत और
फिर जा पहुँचे याचक की मुद्रा में
उस दुनिया के पास
जो अपनी क्रूरताओं से नित बदल रही थी
शब्दों के अर्थ और
बोनसाई की तरह उगा रही थी कविताएँ ।‘