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आज़ादी / सरस दरबारी
Kavita Kosh से
मैं आज आज़ाद होना चाहती हूँ
उन ज़ंजीरों से-जो अक्सर रोकती हैं मुझे,
मैं जो होना चाहती हूँ
वह होने से!
कभी बाँध लेता है आलस्य
और मैं अनुशासनहीन हो-
कर देती हूँ
अपना अनमोल दिन व्यर्थ!
कभी असंतोष बाँध लेता है मुझे
और शिकायतों के भंवर में फँस-
कर देती हूँ
ईश्वर से मिली नेमतों को व्यर्थ!
कभी क्रोध बाँधता है मुझे
तब तर्क और संयम ताक पर रख
होने देती हूँ
सारी समझदारी व्यर्थ!
और जब ईर्ष्या बाँधती है मुझे
किसीके गुण और अच्छाई से उपजा द्वेष
कर देता है
मेरा सारा पुण्य व्यर्थ!
फिर क्यों बंधूँ ऐसी ज़ंजीरों से
जो मुझे मैं बनने से रोकती हैं!
बस इसीलिए
मैं आज़ाद होना चाहती हूँ!