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आज बाध्य हर विचार है / आशुतोष द्विवेदी

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भाव-भाव सुप्त, आज बाध्य हर विचार है
हम हुए असभ्य, हुआ लुप्त सदाचार है


फाग चीखता रहा, बसंत चीखता रहा
चीखती रही धरा, अनंत चीखता रहा
बादलों की आह और सिसकियाँ समीर की
गूँजती रही यहाँ कराह चक्षु-नीर की
किन्तु अकस्मात हुआ मौन हृदय का सितार,
उँगलियाँ अशक्त हुआ क्षीण-क्षीण तार-तार है


सौम्य सृष्टि के स्वरूप को बिगाड़ने लगे
झूमते हुए वनोपवन उजाड़ने लगे
शेष एक ज्योतिमान दीप भी बुझा दिया
और तुच्छ जुगनुओं से रात को सजा दिया
हो गया दिमाग पर सवार प्रगति का बुखार
बढ़ रही विराममुक्त पाप की कतार है


कौन क्या कहे किससे आज हृदय की व्यथा
बंद होठ बोल रहे एक अनकही कथा
हम भी जानते हैं आज देश में स्वराज है
किन्तु क्यों डरा हुआ स्वदेश है, समाज है
कर रहे समाज में सतत अशांति का प्रसार,
क्रांति नहीं मात्र यह समाज का विकार है


बोलते बहुत परंतु कर्म का अभाव है
खोखली हर एक बात दोगला स्वभाव है
जब हुई सुबह तो हमने नेत्र बंद कर लिए
छोड़ उजाला अंधेरी राह से गुज़र लिए
हाट-हाट बिक रहा ममत्व, स्नेह और प्यार,
तीर पतित-पावनी का आज क्षार-क्षार है


हो सके तो अब दिलों के फासले मिटाइए
फिर नवीन रीति से समाज को सजाइए
तम हटे निशा का फिर ज्योतिमय विहान हो
सीख ले भविष्य, यूँ सशक्त वर्तमान हो
लेषमात्र भी न हुआ यदि समाज में सुधार,
शब्द-शब्द व्यर्थ आज गीत निरधार है