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आदमी अब भी कहाँ आज़ाद है/ प्रफुल्ल कुमार परवेज़

 
आदमी अब भी कहाँ आज़ाद है
बस बदल कर रह गया सैयाद है

ज़िन्दगी पर टिप्पणी क्या कीजिए
यातनाओं का सहज अनुवाद है

आजकल के नाटकों से दोस्तो
आदमी काटा हुआ संवाद है

बेजुबानों का शहर है यह शहर
चुप रहो कुछ बोलना अपवाद है

आँख वालों की कमी है इस जगह
और अंधों की बड़ी तादाद है