आबह हे बन्धु / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
लोके सभ करितो अछि
आ कहितो अछि लोके सभ-
आजुक परिवर्त्तनमे पहिलुक समाज-तन्त्र
नहू नहू क्रमहि टूटल चल जाइत अछि
अपनामे प्रेम, आत्मीयता ओ सौजन्यक
जे छल आधार-शिला सैह फुटल जाइत अछि
बाबा तँ मासे मास अबिते छलाह गाम
काका बरखमा दिन एखनहुँ अबैत छथि
भैयाकेँ ड्यूटीसँ पलखतिओ होइत छनि
तैयो ने जानि कियेक आबि नहि पबैत छथि।
तीन बरख बीति गेलनि आबिए ने सकला अछि
पकलाहा आम भेल बाबी ने जानि कखन
तूबि जैत ततबो विचर नहि करैत छथि,
हाकरि छै’ लागल जे बौआकेँ देखितिऐनि
बौआ से डुम्मरिकेर फूल भेल जाइत छथि।
बाबा जे एक बेर दुःखित पड़ि गेल छला
बाबीकेँ नगर जाय पड़ल छलनि बाध्य भऽ
काकी तँ अगहनमे आयल करैत छथि
खेतक किछु उपजा ओ बाड़ीकेर बखरा लऽ
गाम घरक लोक वेद, हित ओ अपेक्षितसँ
हिलमिलि पुरनायल सम्बन्धक सभ गर्दाकेँ
झाड़ि पोछि नम्रतासँ नवताकेर रंग चढ़ा
फेरो चल जाइत छथि।
भैयाकेँ कहियो जँ इच्छो ई होइत छनि-
‘गाम कने’ जैतहुँ’
तँ भौजीकेर सम्मति ओ पाबि ने सकैत छथि
भौजी कहैत छथिन-
गाम घरक आइ काल्हि ‘डर्टी एटमास्क्ेयर’
समटा पुरान चालि
नीक लोक हेतु गाम रहियो न गेल अछि,
माटिमे लेटायत गऽ नेना ओ भुटका सभ
गाय बड़द महिस बीच कूदत ओ फानत गऽ
होयत संस्कार हीन
गारि दस हजार सीखि लेत बिना ट्यूटरक।
भैयासँ भौजी किछु बेसी ‘अप-टू-डेट’ छथि
आधुनिका कहबनि तँ
बिगड़तीह भीतरसँ
ऊपरसँ गुम्हड़िमात्र रहि जैती तखन,
मुदा कुन्नह सधौने बिनु रहती नहि जीवन
हुनका तँ गामसँ
आ गाम भरिक लोकोसँ
घृणा छनि, असर्धा छनि
चर्चा जँ गामक क्यो लगमे करै’ छनि तँ
कान मूनि पच्च दऽकऽ थूक फेकि दैत छथि
गाम घरक लोक मैल कपड़ा पहिरैत अछि,
घामकेर गन्धसँ तँ देहो महकैत छैक
गन्ध जेना फट्ट दऽकऽ नाकेमे पहुँचि जाइनि
तहिना तँ चट्ट दऽकऽ नाके मुनि लैत छथि।
गर्मीओ छुट्टीमे मासौ दिन रहती से
बिजली पंखाक बिना
जिबिते घुरि सकती नहि।
एहि बीच कते एहन पोसल मनोरथ छनि
तकरे पुरौती गऽ दार्जिलिंग घूमि कऽ,
दमघोंटू वातावरण गामक
आ ततय जाय
जीवनक अमूल्य समय व्यर्थ की गमौती गऽ।
बदलि गेल युगक संग
बदलल अछि दृष्टिकोण
‘हम दो हमारे दो’ जीवनकेर परिधि भेल,
वसुधे कुटुम्ब कहियो कहने छल बुढ़बा सभ
तकरा उघैत रहब
मूर्खताक प्रमाण थीक।
ई सभ तँ मंच परक भाषणकेर भूषण थिक
अनका परतारऽ लय कहल करी जोरसँ,
देश ओ समाजक समुन्नति जँ चाही
तँ अपने अभयुन्नतिमे भिंड़ल रही भोरसँ।
नगरक विचार तन्तु क्षुद्रताक सीमा धरि
गाम घरक लोकहुँकेँ होइछ जे लपेटि लेत,
पोछि लेत आँखिकेर कोरहुसँ काजर
आ बाजब तँ उनटे हुरकुच्चत हुरपेटि देत।
आँखिक जे देखल छल
सपना से भेल आइ
विश्वासो होयतै’ नहि आब नऽव तूरकेँ,
अछियो विवेकी तँ बेसल अछि कात भेल
भङठी नहि कऽ सकैछ भङठल एहि सूरकेँ।
बसि कय समाज बीच
एक अपन इज्जति लय
सौंसे समाजकेर नाक कटा मङनीमे
स्वार्थ नहि सघैत छल,
अनको प्रतिष्ठाकेँ गामक प्रतिष्ठा बुझि
तन-मन-धन रक्षालय सभ किछु लगबैत छल
आबि गेलै ककरो दरबज्जापर पाहुन तँ
सौंसे टोलबैया घी-दूध-दही तीनमन
ओ तरकारी घरघरसँ लयकय पहुँचैत छल,
अबै’ छलै’ भार दोर केरा चङेरे भरि
दहिओ मटकूड़े भरि,
तैयो उल्लास भरल ताहीमे पुरासुरा
बयनो बिलहैत छल,
मुदा आइ नगरकेर नवका संस्कार
एहि सभटा परम्पराक
जड़िए उखाड़ि रहल।
बिसरि गेल आत्मबोध,
कहिकय थिक रूढ़िवाद
खाधि खूनि ठामहिपर नीकोकेँ गाड़ि रहल।
किन्तु गाम घरक लोक
लालायित होइत अछि
भौतिकता पूर्ण ओहि नगरे दिस जयबालय
सुनह हे समाज!
घुरह गामे दिस, भारतकेर आत्माकेँ
शुद्ध ओ प्रबुद्ध रूप पयबालय
एखनहुँ विशाल हृदयवान लोक
गामहिमे भेटथुन
ई नगर? शुद्ध तुच्छताक मूर्ति थिक।
ग्रामराज्य, रामराज्य अथवा कल्याणराज्य
नगरकेर कूटनीति सभसँ फराके रहि
फलीभूत भय सकैछ,
अन्यथा कदापि नहि।
छोड़ह मृगतृष्णामे फँसबह नहि अपनाकेँ
सपना साकार करह अपने भरोस पर,
राखह विश्वास अपन बाहुबलक,
बुद्धिबलक, आशाकेँ टेकह
पुनि अपन देश कोस पर।
आबह हे बन्धु!
गीत गाँबह तोँ गाम घरक,
लाबह समुदाय मध्य चेतना समानताक,
सभकेँ जगाबह, डर मनसँ भगाबह
आ जोर कसि लगाबह
हो नाश दुःख दीनताक।