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आवाजे़ं / हेमन्त कुकरेती

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मन के संकेत जाने कब बिसर गये
अब हम बखूबी समझते हैं मशीनों के इशारे

नदी को आदमी ने बालटी में भरकर उलट दिया मशीन में
बिजली की ठेस से निकली बजर की आवाज़
कहा उसने इतना ासमय काफ़ी है कपड़े साफ़ करने को

जाने क्यों आदमी की तेज़ होती साँसें रुकने लगीं
यह थी आदमी के डरने की आवाज़
क्या पता किस आवाज़ से डरकर बच्चा उठा नींद से रोते हुए
हम छुड़ाते रहे अपनी काया का मैल

असर नहीं करती प्यार की आवाज
घर के कुएँ में गूँजती रहती है किसी के खीजने की आवाज़
एक कमरे में होती रहती है भागने-गिरने की आवाज़
दूसरे में पकते हुए अन्न की खुशबू से भरपेट अघाये हुए आदमी की आवाज़

तीसरे में पीछा करती है टूटे हुए सपनों की आवाज़
चौथे कमरे में आखि़रकार अकेले पड़ने की आवाज दबोचे रहती है हमें

इतने कमरों में कोई कोना नहीं मिलता
जहाँ कोई बाहरी आवाज़ नहो
और हम सुन सकें अपनी आवाज़