आशाक किरण / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
कतय छलहु आ आइ कतय छी, रहि रहि मनमे प्रश्च उठैछ।
औँड़ि मारि, मन रहि जाइत अछि, उत्तर एकर न ताकि पबैछ॥
जे जगभरिकेँ बाट देखौलक, अपने आइ गेल भुतिआय।
ज्ञानक दीप अखण्ड जरै छल, कोन बसातेँ गेल मिझाय॥
भाषा-भूषा विविध, विविध मत-पंथ तथा भोजन परिधान।
रहितहु, अन्तर्निहित एक धारा सबमे अछि एक समान॥
करूणा, ममता, दया, त्याग-बल बढ़ल मातृ-भूमिक उत्कर्ष।
किन्तु आइ कहि त्राहि-त्राहि, अछि कुहरि रहल ई भारतवर्ष॥
लागल कोन अन्हरजाली जे सूझि रहल नहि उबरक बाट।
खयलक कोन घून, जे देशक पौरूष आइ पकड़लक खाट॥
दुर्बुद्धिक मारल मति, लागय अनचिन्हार अपनो इतिहास।
अपनहि मुँहेँ अपन रत्नक कय रहलहुँ अछि हम सब उपहास॥
किऐ मनुक्ख मनुक्ख रहल नहि, राक्षससँ बत्तर बनि गेल।
तेहन तेहन दुष्कर्म करय जे नरकहुमे जा ठेलम ठेल॥
डेग-डेग पर मृत्युक नर्त्तन, घर-घरमे पैसल आतक्ङ।
यदि पौरूष नहि जागत, लागत निश्चय देशक माथ कलक्ङ॥
छिटकि रहल आशाक किरण जे बलिदानीक पंक्ति अछि ठाढ़।
करत समर्पित शीश देश-हित संकट भनेँ प्रचण्ड प्रगाढ़॥
पुनः ‘मातरम् वन्दे’ ध्वनिसँ दिग्दिगन्त अनुगुंजित आइ।
करय अङैठीमोड़ देश, से देखि बढ़य विश्वास सवाइ॥
बढ़ल आसुरी-वृत्ति चतुर्दिक, पापक भेल जाय विस्तार।
जा धरि धर्मक ग्लानि न होइछ ता प्रभु नहि लै छथि अवतार॥
से शुभघड़ी निकट बुझि पड़इछ, असुर दलक अछि अन्त समीप।
परसत शुभ आलोक लोकमे, ससरत तिमिर, बरत पुनि दीप॥