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आश्रय देता नहीं जगत,पर / चन्द्रगत भारती
Kavita Kosh से
असमय कुदरत ने दे डाला
उसको है अभिशाप।
आश्रय देता नहीं जगत,पर
वह निश्छल निष्पाप।
बचपन में वह हुई सुहागन
माँग पड़ा सिन्दूर !
छोड़ चली अम्मा बाबू को
नइहर से वह दूर !
सिसक सिसककर वह डोली मे
करती गयी विलाप।
स्वप्न संजोये वह सतरंगी
पहुंची जब ससुराल!
आन पड़ा दुख उसके ऊपर
मुंह बाये विकराल !
जीवन साथी छूट गया जब
हुआ उसे संताप।
विधवा उसको किया भाग्य ने
मिले कहाँ से प्यार !
निष्कासित कर दिया ससुर ने
बहे अश्रु की धार !
बिना दोष वह सजा भोगती
किया न जिसने पाप।
अब उसको हर नजर घूरती
ताने देते लोग !
व्यथित हुआ जब मन उसका तब
अपनाया फिर जोग !
किन्तु जानवर कहाँ नही हैं ?
जरा सोचिए आप।