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आसमाँ हरसिंगार लगता है / जयप्रकाश त्रिपाठी

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अब तो दुश्मन भी यार लगता है।
दोस्त परवरदिगार लगता है।

बात कहने की हो या सुनने की,
इतना क्यों ऐतबार लगता है।

देखना, ख़ुद को देखना भी क्या,
आईना आर-पार लगता है।

अपनी फाकाकशी पे हँसता है,
वह बड़ा ज़ोरदार लगता है।

वक़्त ने इतना दे दिया उसको,
जैसे हर दिन उधार लगता है।

चाहे ओढ़े-बिछाए जितना भी
हर कोई तार-तार लगता है।

भूख में, पत्थरों की बारिश में,
आसमाँ हरसिंगार लगता है।