भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आसमाँ हरसिंगार लगता है / जयप्रकाश त्रिपाठी
Kavita Kosh से
अब तो दुश्मन भी यार लगता है।
दोस्त परवरदिगार लगता है।
बात कहने की हो या सुनने की,
इतना क्यों ऐतबार लगता है।
देखना, ख़ुद को देखना भी क्या,
आईना आर-पार लगता है।
अपनी फाकाकशी पे हँसता है,
वह बड़ा ज़ोरदार लगता है।
वक़्त ने इतना दे दिया उसको,
जैसे हर दिन उधार लगता है।
चाहे ओढ़े-बिछाए जितना भी
हर कोई तार-तार लगता है।
भूख में, पत्थरों की बारिश में,
आसमाँ हरसिंगार लगता है।