आसमान / तुलसी रमण
मेरे देश में
वर्षा का नाम है आसमान
वर्षा के देवता का नाम है
आसमान
आसमान जब देता है तो
छप्पर फाड़कर
और जब रूठता है
तो डंडे तोड़कर
आसमान में उगते और
बढ़ते हैं पेड़
उसी में पकते
लाल लाल सेब
वहीं चरती हैं गौंवें-भेड़ें
वहीं से टपकती
दूध की धार
आसमान से उतरती
सतलुज, ब्यास और रावी
बर्फ की एक एक पंखुड़ी में
उतर आते साठ करोड़ देवता
खुशी में स्वर्ग होता आसमान
और नाराज़गी में
नरक ढोता है
याद है उस बरस
छत तोड़कर बरसा था आसमान
भीतर फ़र्श पर घिर आया
गुस्से में तमतमाया
वर्षा का देवता
बिस्तर से उठकर
गालियों की टेर में
छत पर चढ़ गये थे बाबा
सुबह तक टूट गई
सामने की ढलान
नाला-नदी बहकर
जाने किस मैदान पहुँच गई
फ़सलों सजे खेतों की
श्यामल सीढ़ी
बाबा की देह की टुकड़ी
आंखों की सुंदर क्यारी
ढाँक पर औंधा भूल रहा
वर्षों पाला
सेब का एक पेड़
जड़ों से उखड़कर
मृत प्रायः लम्बा पड़ा
बूढ़ा देवदार
इतिहास सदियों का
नहाये सिर औरत-सी
अपने में चिपटी थी
गेहूँ की सेर
ज़मीन पर बुढ़ा गई
मक्की की पीली डाल
बाहर गरजते रहे भाळ-नाळ
रम्भा रही भीतर काळटी गाय
गा रहे झींगुर
दोपहर में संध्या गान
पानी में छील गई
पहाड़ की देह
उभर आया अस्थि-पंजर विकराल
आकाश ने तब बोली वाणी:
पहाड़ पर भारी वर्षा
जान-माल का
करोड़ों का नुकसान
बिखरते रहे दसों दिशि
राहत के ढेरों शब्द
आसमान से पूछा गया
ज़मीन का हाल
समय का सत्कार
कैसे गूंथी जाएगी
रोम-रोम उधड़ी
जमीन की देह
पकड़ना होगा जाड़े के बाद आषाढ़
चिंता में रोटी एक जून की
छोड़ गये थे बाबा
पीड़ा में भीग गया था
इतना पानी
पानी में घुल गया
विकास का इश्तिहार
हवा में उड़ गये
राहत के शब्द
मोटी आँतों में भर गया
बड़े भंडार का गेहूं
पानी में धुली पड़ी थीं
छोटी आँतें
कुछ इस क़दर
छत फाड़ कर
बरसा था आसमान
अबके-बरस
धूर पर टँगी बदली देख
बरस पड़ती हैं
ज़मीन की सारी आंखें
पर बदली है कि
बरसने का नाम नहीं लेती
रूठ गया है वर्षा का देवता
अपने में जमा पड़ा आसमान
ज़मीन पर ही सूख गई रोपाई
नहीं सूंघी हवा ने
कळज़ीरी की महक
कंठों में ही दबे रहे
रीलू के बोल
मक्की में नहीं आई मिंजर
चम्बा हुआ अचंभा
कहाँ गये कैलाशों के वासी
खोया कहाँ रानी सूही का बलिदान
तपती सूखी रेत पर
मिंजर मेले में बहाया गया
रूठा आसमान
सावन के वक्ष पर
अग्नि का मसान
आसमान ने नहीं भेजी हरी साड़ी
चौथ का व्रत नहीं लिया पृथ्वी ने
काळटी के थनों में
सूख गई दूध की धार
आसमान को पूजती
थक कर बैठ गई बूढ़ी नानी
उस ऊंचे कीमू की छाँव
अपनी उसी दराती से
ज़मीन की चमड़ी छील रही
कोकला बुआ
देखो
सूखे टीले पर खड़ा है
जवान माधो
राहत में माँग रहा
गेहूँ के दाने और
एक अद्धा शराब
आकाश ने फिर बोली वाणी
फिर लगाया देवताओं ने
करोड़ों का अनुमान
देख रहा माधो
कब मिलेगा
एक अद्धा शराब
विचार कर रहे देवता
उनके भंडारी-पुजारी
किसको कहाँ है
बाँटना प्रसाद
पँच-कुंडी यज्ञ में-
बजाएगा शंख कौन
करेगा कीर्तन
जुटाएगा कौन ढेरों फूल
सजाने को विजय-हार
पहाड़-दर-पहाड़
उतर आएगा आसमान
प्रेत बनकर
सामने खड़ा है सयाळा
उसके आगे झूल रही
खाली आँतें
कितने ही नर-कँकाल
ताक रहे देवता
अपनी झोली में भरने को
सारे कँकाल
आसमान में बादल नहीं
और न ही साफ नीला है आकाश
झुलस रही
आग में पृथ्वी
आसमान में भरा पड़ा
पँच-कुंडी धुआँ
कर-कमलों से मुखारविंद तक
सूखा ही सूखा...
रंगीन टी.वी. पर उतर आये
मर्यादा पुरुषोत्तम
आसमान में उगल रहा पुष्पक
धरती के रक्त का धुआँ
पवन-सुतों की सेना लिये
पृथ्वी को रौंद रहा
आसमान
देख रहा है आदमी
क्षितिज पर तमतमाया सूरज
पृथ्वी की आग में
झुलसेंगे देवता
बरसेगा आसमान
सितंबर 1987
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ढाँक=ढलान पर चटटान,सेर=सीढ़ीनुमा खेतों का समूह,भाळ-नाळ= झरते नाले, कळज़ीरी=धान की किस्म,रीलू= फसल कटाई पर गाए जाने वाले लोकगीत, मिंजर=मक्की की भूरी जटाएं, चम्बा के पारम्परिक 'मिंजर' मेले में रावी नदी में विधिवत प्रवाहित की जाती हैं, सूही= चम्बा की प्रसिद्ध रानी जिसने नगर में पानी लाने के लिए अपना बलिदान किया था।
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