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आस्था - 27 / हरबिन्दर सिंह गिल
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चिंतन की निगाहों में
मातृभूमि का स्वरूप
रेखाएं खींचकर नहीं
शब्दों की गहराई में जाकर
निखारा जा सकता है
शायद
आने वाली पीढ़ियों में है।
कभी कोई उठे
और ऐसे वाक्य बनाये
जो समीकरणों की
जगह ले सके।
यह एक वो आशा है
जो मानव को
अपनी व्यस्त दुनियाँ में
कुछ क्षण
माँ-मानवता के नाम पर
अर्पित करने के लिये
प्रेरित करती रहती है
वरना
स्टंट की दुनियाँ में
मातृभूमि के नाम पर
सिर्फ धमाके ही धमाके
सुनाई दे रहे हैं
और सुनाई देती हैं,
चीखें विधवाओं की
और
सिसकियाँ अनाथ बच्चों की।