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आस्था - 51 / हरबिन्दर सिंह गिल
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ऐसी धरती पर ही
जहाँ हो रही हो, सिंचाई खून से
होता है अंकुरित एक पौधा
और लगता है फलने फूलने
बन कर एक स्वार्थ रूपी बूंद।
एक ऐसा वृक्ष, जिसके साये में
मानवता झुलस रही है
और कर रही है प्रतीक्षा
कोई उसे उखाड़ फेंके
शायद, सूर्य की गर्मी में तपती बालू पर
वह रहना ज्यादा पसंद करे।
परंतु मानव यह जानते हुए भी
बहुत मीठा जहर है, इस फल का
समाज में कर रहा है, खेती इसकी
शायद, मानवता के दूध का
कर्ज उतारने की, कर रहा है कोशिश।