आह्वान / अज्ञेय
ठहर, ठहर, आततायी! जरा सुन ले!
मेरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज सुन जा!
रागातीत, दर्पस्फीत, अतल, अतुलनीय, मेरी अवहेलना की टक्कर सहार ले
क्षण-भर स्थिर खड़ा रह ले-मेरे दृढ़ पौरुष की एक चोट सह ले!
नूतन प्रचंडतर स्वर से, आततायी! आज तुझ को पुकार रहा मैं-
रणोद्यत, दुर्निवार ललकार रहा मैं!
कौन हूँ मैं?-तेरा दीन-दु:खी, पद-दलित पराजित
आज जो कि क्रुद्ध सर्प-से अतीत को जगा
'मैं' से 'हम' हो गया
'मैं' के झूठे अहंकार ने हराया मुझे, तेरे आगे विवश झुकाया मुझे,
किन्तु आज मेरे इन बाहुओं में शक्ति है,
मेरे इस पागल हृदय में भरी भक्ति है-
आज क्यों कि मेरे पीछे जागृत अतीत है,
और मेरे आगे है अनन्त आदिहीन शेषहीन पथ वह
जिस पर एक दृढ़ पैर का ही स्थान है-
और वह दृढ़ पैर मेरा है-गुरु, स्थिर, स्थाणु-सा गड़ा हुआ-
तेरी प्राण-पीठिका पै लिंग-सा खड़ा हुआ!
और, हाँ, भविष्य के अजनमे प्रवाह से
भावी नवयुग के ज्वलन्त प्राण-दाह से
प्रबल प्रतापवान्, निविड प्रदाहमान्ï, छोड़ता स्फुलिंग पै स्फुलिंग-
आस-पास बाधामुक्त हो बिखरता-क्षार-क्षार-धूल-धूल-
और वह धूल-तेरे गौरव की धूल है,
मेरा पथ तेरे ध्वस्त गौरव का पथ है
और तेरे भूत काले पापों में प्रवहमान लाल आग
मेरे भावी गौरव का रथ है!
कलकत्ता, 18 जुलाई, 1938