भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इंतजार / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
साँझ हुई हैं...
समुद्र का आँगन देखो सुनहरा-सा हो चला हैं।
दूर एक अकेली नाँव कौतूहल जगाती
चल रही है धीमी गति से
शायद अपने गंतव्य की ओर जाती
या फि र कहीं खो गई हैं
सब कुछ शांत-सा हैं
पखेरू अब घर को चले गए हैं
लहरें भी हल्की-सी आहट से बह रहीं है
जैसे सबको किसी का इंतजार हैं
ठीक वैसे ही जैसे, किनारे पर बैठा मेरा मन
एक अंतहीन इंतजार में है...