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इतना चुप / गोबिन्द प्रसाद
Kavita Kosh से
बदलने को है जो दृश्य
वह ठहर जाए लालटेन की साँस में
जब तक मेरे होठों पर काँपता रहे स्पर्श
तुम उठाए रखना पलकों पर
दूधिया आसमान
इतना चुप रहना की मैं सुन सकूँ
पत्तियों के सिसकने की आवाज़
इतना चुप रहना कि मैं जान सकूँ
एक-एक कर झरने में पंखुरी के राज़
इतना चुप रहना कि मैं गुन सकूँ
करवट लेती पृथ्वी में सपने की टूट
इतना चुप रहना कि मैं सुन सकूँ
अपने भीतर
जीवन देने वाली बूँद की आवाज़
इतना चुप,कि मैं सुन सकूँ अपने अन्त का आरम्भ