इतने ऊँचे से देखता हूँ
नीचे मैदान में धीरे-धीरे रिस रहा है पानी
सूरज अपनी किरणें सामनेवाले घर की खिड़की के काँच से टकराकर
फेंक रहा है मेरी आँखों की तरफ़
लड़के खेल रहे हैं नीचे
गीली ज़मीन पर उनके गरम तलुवे पड़ते हैं तो भाप उड़ती है
यहाँ से भी दिख रही है उनकी ख़ुशी
उनकी आवाज़ तो जा रही होगी अन्तरिक्ष में
यह क्या किया उन्होंने कि
पृथ्वी को गेंद की तरह उछाल दिया
कई सधे हाथ मज़बूत कन्धों से जुड़े आतुर हैं उसे लपकने को
रसोई से पके हुए अन्न की खु़शबू
आसपास और नीचे भी जा रही होगी
देखता हूँ और सुनता हूँ
सोचकर कहता हूँ कि ऊँचाई से
चौड़ाई और गहराई ही नहीं
अपने से भी ज़्यादा ऊँचाई दीखती है
सिर्फ़ देखना पड़ता है कि
कई हमसे भी नीचे रहने को विवश हैं
और हम सभी से ऊँचे नहीं हैं
इसे ध्यान में रखता हूँ
इसीलिए हर ठोकर पर ठिठककर बच जाता हूँ: गिरता नहीं हूँ
मेरे पैर के नीचे ज़मीन होती है
सिर पर आसमान
इस सच को मैं अपने बिलकुल पास रखता हूँ
और डराता नहीं हूँ किसी को...