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इन्द्रधनुष ले आऊँगी / रश्मि विभा त्रिपाठी

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तुम रंग छीन लो सारे ही
मेरे सपनों को स्याह करो
आसमान से माँगकर
मैं इन्द्रधनुष ले आऊँगी।

तुम गीत छीन लो होठों के
मत लय बनने दो कोई
मैं मुक्तकंठ से फिर भी
हर पल गुनगुनाऊँगी।

तुम तोड़ो मन की डाली को
नोचो खुशियों के पत्ते- फूल
फिर आएगा मधुमास यहाँ
मैं फिर जीभर हरियाऊँगी।

तुम काटो मेरे पंख भले
मुझको पिंजरे में कैद करो
मैं बिन पंखों के भी उड़कर
अम्बर पर धाक जमाऊँगी ।

तुम दीवार उठा दो रस्ते में
मेरी मंजिल तक जाता जो
मैं उस रस्ते की उठी हुई
दीवारों में दर बनाऊँगी ।

दो खूब हवा साँस की लौ को
छाती के दीए में बाती आस की
जितनी बार बुझाओ इसको
मैं उतनी बार जलाऊँगी ।

तुम प्यालाभर विष क्यों देते
मैं सागर भी पी जाऊँगी
मेरे पास सुभाशीष संजीवनी
मैं मरकर भी जी जाऊँगी ।

तुम लाख कोशिश कर डालो
मैं साहस नहीं डिगाऊँगी
अभिमान तुम्हारा हारेगा
मैं विजय- पर्व मनाऊँगी ।

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