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इसलिए निकला हूँ / नील कमल
Kavita Kosh से
दरअसल
उम्मीद के सूरज का नहीं होता
कोई अस्ताचल
पूरब से निकलकर पश्चिम में
डूबती है हमारी सोच
हम पाते हैं एक रोज़
कि सोच कितनी ग़लत थी
दरअसल
सूरज न डूबता था कभी
न निकलता ही था कभी
डूबते निकलते थे हम ही
अपनी सोची हुई दुनिया से
हमारे बच्चे आज भी
स्कूलों में रटते हैं
पूरब-पश्चिम की झूठी
परिभाषाएँ
इसलिए निकला हूँ
कि दिखाऊँ उन्हें
उम्मीद का वह सूरज
बच्चे गढ़ें दिशाओं की
नई परिभाषाएँ
जो शब्दकोषों के बाहर
उनके इंतज़ार में हैं ।