भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
इस ढलान पर (कविता) / प्रमोद कुमार
Kavita Kosh से
अलग-अलग
छोटी-छोटी नावों से
अपने-अपने पार लगने का
समय ख़त्म हो गया,
अब तक के अपने इतिहास में
नदी सबसे तीक्ष्ण ढलान पर फिसल रही है
यहाँ निरर्थक हैं अलग-अलग चप्पू,
असमर्थ हैं अपने-अपने पतवार,
इस हत्यारे ढलान के हाहाकार में
छिन गयी अविरल निर्भयता
लुप्त हुआ
अनन्त में उतरने का कलकल आनन्द,
इस हाहाकार को चुप कराने
हे मल्लाहों !
आओ एक स्वर में गाएँ
जीवन के गीत,
जोड़ लें सभी नावें एक साथ
छोटी कर दें ढलान को ।