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इस बस में हिचकोले नहीं लगते / शैलेय
Kavita Kosh से
बस की जिस सीट पर मैं बैठा हुआ हूँ
गई होंगी
कितनी ही सवारियाँ इस सीट पर
बच्चे-
चंचल आँखों से बाहर कुलाँचते
नवोढ़ाएँ-
पति और प्रकृति के प्रेम में डूबी
रोज़गारी लोग-
जेबों की कोरें कुरेदते अनमने
बूढ़े-
खिड़की थोड़ा खोल साँस खगालते
सबके
अपने-अपने हिचकोले हैं
थिर है तो सीट
तो क्या इस बस को कभी कोई हिचकोला नहीं आता
नहीं आता तो
इतना ख़ुश क्यों है वह कबाड़ी
जो हर आती-जाती हुई बस को
अन्तत:
ठेले पर चढ़ा हुआ महसूस कर रहा है
शायद
इस सड़क पर कबाड़ी ही है
जिसके लिए
ज़िन्दगी का दूसरा नाम हिचकोला है
और
जिसके पास कोई सीट नहीं है।