उत्तर-जीवन / मनोज कुमार झा
खाँसना भी न आया था जब पानी चढ़ गया था ओसारे पर
सब भाग कर एकत्र गाँव में एक ही थी ऊँची परती
बाँस-काठ पत्ता-पन्नी कुछ जुटा हुए कुछ कच्चे-अधकच्चे खोह
जिसमें कुछ मनुष्य-सा रहे हम,
पाँच बच्चे थे हमारे आस-पास की उमर के जिन्हें
पाँच-पाँच माँओं के दूध का सुख हुआ, पेड़ों के भी दूध
चखे हमने एक गूलर है स्मृति में उपरान्त-कथाओं से झाँकता
अब इतना खाँसता कि कोई कमरा नहीं देता किराए पर
बार-बार हाथ से छूट जाता है भरा हुआ लोटा
ठंड सहने की भी जुगत नहीं, गर्मी की भी नहीं
पहली बार ए०सी० देखा शवगृह से लाते वक़्त चाचा का पीला शरीर
टूटता गया साही का एक-एक काँटा
कब तक छुछुआए भादो की रात में साही जिनके सारे काँटे झड़ गए
एक मन हुआ था कि सिमरिया-पुल से दे दूँ देह को गंगा में पलटी
आस लगाए मल्लाह की जाल में बाहर आएगी चवन्नी, अठन्नी के साथ नरपिंजर
कि देखो क्या हाल है मनुष्य का गंगा के कछार में
मगर बार-बार बाँध लेती है ब्रह्माण्ड की यह हरी पुतली जिसमें हहाता जल अछोर नीला
बार-बार पाँव लग जाते हैं खाट के नीचे रखे लोटे में
पूरी मिट्टी पिचपिचा जाती है
कि तभी अँधियाला बिखेर जाता है नाभि की कस्तूरी
खाँसता हूँ तो चतुर्दिक् हवाओं से धुना धूप की कपास फेफड़ा सहलाती है
मलिन मन उतरा जल में कि फाल्गुन बीता विवर्ण
लाल-लाल हो उठता है अंग-अंग अकस्मात्
कौन रख चला गया सोए में केशों के बीच रंग का चूर ।