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उत्सर्ग / महेन्द्र भटनागर

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तुमने क्यों काँटे बीन लिए ?

जब हम-तुम दोनों साथ चले
सुख-दुख लेकर जीवन-पथ पर,
कुश-काँटों से आहत उर को
आपस में सहला-सहला कर,
पर, अनजाने में, तुमने क्यों
मेरे सारे दुख छीन लिए ?

आधे पथ तुम ले जाओगी
क्या तुमने सोचा था मन में ?
अंतिम मंज़िल मैं, ले जाता
निर्जन वन के सूनेपन में !
पर, हाय! कहाँ वह मध्य मिला ?
पग सह न सके, गति हीन किये !
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