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उदास रोशनी का सफरनामा / जावेद आलम ख़ान

एक चमकीली रात में उदास तारों के साथ
मैं निकल जाता हूँ अक्सर किसी अनजान सफर पर
और देखता हूँ
नगरीकरण से प्रताड़ित गाँव का पुराना बरगद
छठ मैया के अर्घ्य को जोहता शहर की कृत्रिम झील का घाट
चौराहे पर लगी प्रतिमा को अपने डैनो में छिपाए
झपकी लेते काले रहस्यमयी परिंदे
आपबीती सुनाने को आतुर भाषा की तलाश करती
बंधन का अभिशाप झेलती ज़िंदा परछाइयाँ

घरों से बहुत दूर
म्यूजियम की भीड़ में खुद को तलाशता
अपना प्रतिबिंब खोजता कोई आदमकद आइना
उसी तरह उदास है
जैसे डांट पड़ने के बाद खड़ा खामोश बच्चा
जैसे रमज़ान के बाद ख़ाली पड़ी मस्जिदों के अहाते
जैसे पतझड़ की रुत में
झड़े पत्तों को अपनी तलहटी में देखता
कोई नग्न बगीचा

न्यूज़ चैनलों पर चीखते एंकरों की उलटबांसियों में
गुम हुई आम आदमी की आवाज़
सन्नाटे पर तैरते हुए
पांच बच्चों के लिए बनी अंडे की सब्जी के लालच में
बटलोही में शोरबे और आलुओं के बीच दबे
चार अंडों को ताकते पिता की चिंता में घुल जाती है
तमाम दफ्तरों में भटकती
सरकारी जुमलों में दफन हुई उम्मीदों की रूहें
रात में चमगादड़ बनकर पेड़ों पर उलटी लटक जाती है

मोबाइल चलाते-चलाते सोया हुआ किशोर बड़बड़ाता हुए देश के गद्दारों को गोली मारने का फरमान सुनाता है
और तमाम मेढक टर्राते हुए सन्नाटे की हत्या कर देते है
रात की खुमारी उन्माद में बदल चुकी है
मिथ्या गर्व के स्वप्नलोक में चक्कर काटती देशभक्ति
बंदूक बनकर अपनी ही कनपटी पर तनी है
और मुझे प्रथ्वी की तलहटी पर मौजूद मिट्टी
बारूद में बदलती हुई जान पड़ती है