जागरण-प्रात यह दिव्य अवदात बंधु,
प्रीति की वासंती कलिका खिल जाने दो।
दूर हों भेद-भाव कूटनीति कलह तय,
द्वेष की होलिका को शीघ्र जल जाने दो।
नूतन तन, नूतन मन, नवजीवन छाने दो,
ढल रही मोह-निशा मित्र, ढल जाने दो।
रोम-रोम पुलकित हो, अंग-अंग हुलसित है,
प्रभा-पूर्ण ज्योतिर्मय नव विहान आने दो।