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उद्बोधन / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
जीवन मुक्त करो !
सदियों की बद्ध शृंखला,
निष्क्रिय खंडित भ्रमित कला,
तमसावृत सृष्टि अर्गला,
नूतन रवि-रश्मि प्रखर से सब छिन्न करो !
तन-मन मुक्त करो !
जन-जन पीड़ित अपमानित,
बंधन-ग्रस्त अवनि लुंठित,
निर्बल, नत, मूक, पराजित,
स्वाभिमान मर्माहत, जड़ता भंग करो !
जन-जन मुक्त करो !
ठोकर, क्षुधा, अभाव, मरण,
कटु जीवन का सूनापन,
लज्जा का इतिहास, दमन,
सामूहिक हुंकारों से विद्रोह करो !
जग को मुक्त करो !