उदबोधन / मन्नन द्विवेदी गजपुरी
हिमालय सर है उठाए ऊपर, बगल में झरना झलक रहा है।
उधर शरद् के हैं मेघ छाए, इधर फटिक जल छलक रहा है।।१।।
इधर घना बन हरा भरा है, उपल पर तरुवर उगाया जिसने।
अचम्भा इसमें है कौन प्यारे, पड़ा था भारत जगाया उसने।।२।।
कभी हिमालय के शृंग चढ़ना, कभी उतरते हैं श्रम से थक के।
थकन मिटाता है मंजु झरना, बटोही छाये में बैठ थक के।।३।।
कृशोदरी गन कहीं चली हैं, लिए हैं बोझा छुटी हैं बेनी।
निकलकर बहती हैं चन्द्र मुख से, पसीना बनकर छटा की श्रेनी।।४।।
गगन समीपी हिमाद्री शिखरों, घरों में जलती है दीपमाला।
यही अमरपुर उधर हैं सुरगण, इधर रसीली हैं देवबाला।।५।।
गिरीश भारत का द्वार पर है, सदा से है ये हमारा संगी।
नृपति भगीरथ की पुण्य धारा, बगल में बहती हमारी गंगी।।६।।
बता दे गंगा कहाँ गया है, प्रताप पौरुष विभव हमारा?
कहाँ युधिष्ठिर, कहाँ है अर्जुन, कहाँ है भारत का कृष्ण प्यारा।।७।।
सिखा दे ऐसा उपाय मोहन, रहैं न भाई पृथक हमारे।
सिखा दे गीता की कर्म शिक्षा, बजा के वंशी सुना दे प्यारे।।८।।
अँधेरा फैला है घर घर में माधो, हमारा दीपक जला दे प्यारे।
दिवाला देखो हुआ हमारा, दिवाली फिर भी दिखा दे प्यारे।।९।।
हमारे भारत के नवनिहालो, प्रभुत्व वैभव विकास धारे।
सुहृद हमारे हमारे प्रियवर, हमारी माता के चख के तारे।।१०।।
न अब भी आलस में पड़ के बैठो, दशोदिशा में प्रभा है छाई।
उठो, अँधेरा मिटा है प्यारे! बहुत दिनोम पर दिवाली आई।।११।।
’कविता कौमुदी भाग दो’ में प्रकाशित