उधार की भाषा / रश्मि भारद्वाज
उनका हकलाना सुन
मेरी जीभ पर भी उग आते हैं काँटें
स और श के बीच ठिठकती उनकी ज़ुबान
ज और ज़ का बारीक अन्तर समझने की असफल कोशिश
कुछ आँखों में तैरता है ख़ौफ़ आवाज़ के इस आतंक से
कुछ भर उठती हैं उपहास से
ज्यों पूछ रही हों कि जो साथ चले आते हैं अपनी मिट्टी, बोली-बानी के टुकड़े
उनसे भाग सकना इतना सहज है!
मक्खन की डली-सी फिसलनी चाहिए मुँह से उधार की वह भाषा
गर ख़रीदने हो सपने इस बाज़ार में
यह कहते जाने कितनी बार कोसती हूँ ख़ुद को
चुपके से दिल माँगता है दुआ
कि बनी रहे इन आँखों में सपने देखने की लहक
कोई भाषा नहीं चुरा ले जाए इनके अन्दर की आग
चलने, उठने, बैठने की तरक़ीबें सिखाती उन्हें
बड़े जतन से छुपाती हूँ अपना क़स्बाईपन
किसी कुशल अभिनेत्री-सी ख़ुद को साधती
डरती हूँ लड़खड़ा जाने से
याद दिलाए रखना होता है ख़ुद को हर पल
कि नहीं आए ज़ुबां पर वह भाषा मेरी
जो सींचती रही है मुझे हवा, पानी, धूप-सी
और ऐसे तमाम समय में मेरी कविता चुपचाप कमरे से बाहर निकल जाती है
वह जानती है कि मेरे अन्दर तब मैं नहीं होती