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उन सृष्टा अँगुलियों को चूम लूँ / शेखर जोशी
Kavita Kosh से
डूबता रवि
घिर रही है सांझ
चित्रित गगन-आँगन !
किन अदीखी अँगुलियों ने वर्तुल सप्तरंगी अल्पना लिख दी ?
कहाँ हैं वे हाथ
कितने सुघड़ होंगे ?
(अल्पना के रंग साक्षी)
क्षणभर देख तो लूँ
नयन-माथे से लगा लूँ
उन सृष्टा अँगुलियों को चूम लूँ।
मैं कि जिसका भाग्य अब तक
सूने चौक, देहरी, द्वार-आँगन से बंधा है ।
शायद ये वही हों हाथ
जो धानों की हरी मखमल के किनारे
पीली गोट सरसों की बिछाते
जो धरा पर सप्तवर्णी बीज-रंगों अल्पना लिखते
जो धरा पर सप्तरंगी फूल-रंगों अल्पना लिखते
जो धरा पर सप्तगंधी अन्नरंगों अल्पना लिखते
आहï! कितने सुघड़ होंगे
पात-पल्लव-अन्न साक्षी
नयन माथे से लगा लूँ
उन सृष्टा अँगुलियों को चूम लूँ ।