भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उपहार / चंद्र रेखा ढडवाल
Kavita Kosh से
उपहार
धूप मेरे बरामदे की
एक दोपहर में
जाने कितनी बार मरती है
सफ़ेदे के पेड़ से लिपटी
झाड़ीनुमा कागज़ी फूल की
उस बेल के कारण कभी
जिसे मेरे पिता ने बोया था
मेरे पहले जन्मदिन पर
मेरे आँगन से लगे
आधी रोटी के-से आकार के
लोहे से बने उस गेट से कभी
जि मेरी कमाई का
पहला उपहार है
अपने पिता को.