उम्मीदों पर खरा न उतरा / जयकृष्ण राय तुषार
सन ग्यारह जा दरिया में डूबे तेरा सफीना
उम्मीदों पर
खरा न उतरा
होता गया कमीना |
सन ग्यारह
जा दरिया में ,
डूबे तेरा सफीना |
जाते -जाते
वालमार्ट का
पत्थर सिर पर फोड़े ,
पहले से ही
टूटे दिल को
आखिर दम तक तोड़े ,
जोंक व्यवस्था
पी जाती है
अपना खून -पसीना |
सिंहासन पर
मौन मुखौटे
कठपुतली दरबारी ,
राजकोष से
अपने घर की
भरे तिजोरी सारी ,
लौटे हैं
बेउर ,तिहाड़ से
फिर भी चौड़ा सीना |
जली रोटियों
जैसी किस्मत
हर आफ़िस ,दफ़्तर में ,
मँहगी गैस
टिफिन की चिन्ता
रोज रसोईघर में |
खेत पियासे
डीजल मँहगा
चुप हैं रामनगीना |
पाहुन -परजा
और सरौते
मिलते नहीं ओसारे ,
चमक उठे
फिर दीवारों पर
लोकलुभावन नारे ,
भीड़ जुटातीं
विद्याबालन -
शीला और रवीना |
फिर -फिर
वही तमाशा लेकर
नए साल मत आना ,
भौरे -फूल-
तितलियाँ ,लाना
परियों का अफसाना |
एक टाट पर
मिलकर बैठें
काशी और मदीना |