उषा-सुंदरी का शृंगार / प्रभात पटेल पथिक
तुम हँसी तो झरे ओस-कण पात से,
खिलखिलाई प्रकृति, रागिनी बज उठी।
ताल-निर्मल प्रतीक्षित, तुम्हारे लिए,
पाँव का स्पर्श पा, धन्य हों जाएँगे!
ले महावर उपस्थित, सु-प्राची दिशा,
अंग लगते ही बहुमूल्य हो जायेंगे।
बाल में गूथने, रूप को देखने,
झील लेकर स्वयं प्रेम-पंकज उठी॥
वृक्ष उद्यान के कर रहे हैं हवा,
दूर्वा ने पिन्हाई हरित मुंदरी।
सिर चढ़ाई ज्यों शेफालिका ने चुनर,
खिल उठी नववधू-सी उषा-सुंदरी।
कंकड़ों-कंटकों ने लिया पथ बदल,
पाँव को चूमने मार्ग की रज उठी।
केश तुमने बिखेरे अँधेरा हुआ,
जग ने समझा है ये पूर्ण-सूरजग्रहण।
तारिकाएँ गगन की भ्रमित हो गईं,
नभचरी थे भ्रमित, संशयित थे हिरण।
केश बाँधे जो तुमने, सवेरा हुआ,
ये क्षणिक-भ्रम-निशा तब उषा तज, उठी।
तुमने जो झूमकर नृत्य थोड़ा किया,
ये लताएँ मुदित हो लगी झूमने।
क्या कोई रस-मदिर पान तुमने किया?
पुष्प इक-दूसरे को लगे चूमने!
प्रेम के गीत निकले जो मधु-कंठ से,
पक्षियों की कहीं सुर-सभा सज उठी।