उषा / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
अगम गहन के परदे पर लिख भीतर-बाहर,
वशीकरण के रोमा´्चक रोचक व्य´्जन-स्वर।
छवि की छवि को भी लज्जित कर हृदयहरण कर,
विविधरूप धर दर्शन-पथ में चमक-दमक भर।
आई उषा गगन की दुहिता पूर्व क्षितिज पर,
अंकित सत-चित-सुन्दर जिसके नाभि-वलय पर।
रत्नों की आभा विखेरती हुलसाती मन,
सिन्धुमेखला पृथिवी का ग्रीवालम्बन बन।
अरुणफिरन वाली लावण्यमयी तरुणी-सी,
रंगों की बुनती झीनी तानी-भरनी-सी।
भूतकाल में रही चमकती गगन-द्वार पर,
वर्त्तमान में चमक रही फिर अन्धकार हर।
दिव्य चक्षु के दर्पण-तल से नित्य नवा बन,
करा रही किस महतोमहीयान के दर्शन?
उषा जानती ऋत के पथ को सत्य चिरन्तन,
होती नहीं विमुख वह उससे कभी एक क्षण।
लाती चक्षु-सूर्य को अम्बर की मूर्धा पर,
करती उसके छन्द-अश्व को वहन निरन्तर।
नव जागरण-मऩ् के अपने सम्बोधन से,
विश्व-भुवन को अरुण बनाती नयन-किरण से।
लुभा रही आनन्दों को भी सम्मोहन से,
लुटा रही नीलम, मणि, कुन्दन, गगनांकन से।