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उसके हिस्से का बसंत / गीता शर्मा बित्थारिया

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गर झर जाए गुलाब की चंद पंखुड़ियां
तो क्या गुलाब गुलाब नहीं रहता
क्यों नकारते हो तुम उसकी सुगंध

गर ढक लें बादल पूनम का चांद
तो क्या चाँद चाँद नहीं रहता
कैसे मिटा सकते हो तुम उसका उजास

गर टूट गए हैं चिड़िया के कोमल पंख
तो क्या चिड़िया चिड़िया नहीं रहती
क्यों रोकते उसे छूने से अपना गगन

गर तितली मुरझाई घायल हुए पंख
तो तितली तितली नहीं रही
कैसे अनदेखा कर दोगे उसके सपने सतरंग

गर टूट गई है कोई शाख किसी वृक्ष की
तो क्या वृक्ष वृक्ष नहीं रहता
कैसे भुला दोगे तुम उससे मिलता प्यार

गर दरक गई है कोई जमी हुई चट्टान
तो क्या चट्टान चट्टान नहीं रहती
कैसे अनसुना कर दोगे बहते झरने का संगीत

गर पात हुए हैं पीले पतझड़ छाया है
क्यों सोचते हो फिर से दरख़्त हरा नहीं होगा
कैसे छीन लोगे तुम उसके हिस्से का बसंत

टिमटिमा रहा है कांपती लौ के साथ कोई दिया
तो क्या वो दिया दिया नहीं रहा
नकार दोगे उसकी जिजीविषा उसके प्रयास

गर कोई मानव किंचित कुछ तुमसे दिखे विलग
तो क्या वो मानव मानव नहीं रहता
क्या छीन लोगे उसके गरिमा से जीने के अधिकार

तुम जानते हो तो सिर्फ उनके नाम
तुम्हें कहां पता होती हैं उनकी संघर्ष कथायें
जानते नहीं हो उनकी जिद उनकी जिजीविषायें

उन्हें पराजित करने के सब उपक्रम सारे जतन
उनकी समर्थ के आगे नतमस्तक हैं
कितनी अटल कितनी विरल है उनकी संकल्प शक्ति

छू लेते हैं ऊंचा अगम्य अनंत विहान
ये परिंदे पंखों के भरोसे कहां रहते हैं
अदम्य हौसलों से अपनी उड़ान भरते हैं