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उस बावड़ी के किनारे एक क्रीड़ा-पर्वत / कालिदास

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तस्‍यास्‍तीरे रचितशिखर: पेशलैरिन्‍द्रनीलै:
     क्रीडाशैल: कनककदलीवेष्‍टनप्रेक्षणीय:।
मद्गोहिन्‍या: प्रिय इति सखे! चेतसा कातरेण
     प्रेक्ष्‍योपान्‍तस्‍फुरिततडितं त्‍वां तमेव स्‍मरामि।।

उस बावड़ी के किनारे एक क्रीड़ा-पर्वत है।
उसकी चोटी सुन्‍दर इन्‍द्र नील मणियों के
जड़ाव से बनी है; उसके चारों ओर सुनहले
कदली वृक्षों का कटहरा देखने योग्‍य है।
हे मित्र, चारों ओर घिरकर बिजली
चमकाते हुए तुम्‍हें देखकर डरा हुआ मेरा
मन अपनी गृहिणी के प्‍यारे उस पर्वत को
ही याद करने लगता है।