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ऊंघ रहे हैं कवि / प्रभात कुमार सिन्हा
Kavita Kosh से
शब्दों के घर में सांकल नहीं थे
हर शब्द के अपने गीत थे
शब्द दूर-दूर तक जाते थे चलकर
इधर कुछ शब्द कुन्द हुए हैं
उनकी कमर में रस्से लगे हैं
कवि जो होते थे सगे शब्दों के
वे स्वयं ऊँघ रहे हैं।