एकलव्य से संवाद-1 / अनुज लुगुन
एकलव्य की कथा सुनकर मैं हमेशा इस उधेड़बुन में रहा हूं कि द्रोण को अपना अँगूठा दान करने के बाद उसकी तीरंदाजी कहाँ गई? क्या वह उसी तरह का तीरंदाज बना रहा या उसने तीरंदाजी ही छोड़ दी? उसकी परंपरा का विकास आगे कहीं होता है या नहीं? इसके आगे की कथा का ज़िक्र मैंने कहीं नहीं सुना। लेकिन अब जब कुछ-कुछ समझने लगा हूँ तो महसूस करता हूं कि रगों में संचरित कला किसी दुर्घटना के बाद एकबारगी समाप्त नहीं हो जाती। हो सकता है एकलव्य ने अपना अँगूठा दान करने के बाद तर्जनी और मध्यमिका अँगुलियों के सहारे तीरंदाजी का अभ्यास किया हो। क्योंकि मुझे ऐसा ही प्रमाण उड़ीसा के सीमावर्ती झारखंड के सिमडेगा जिले के मुंडा आदिवासियों में दिखाई देता है। इस संबंध में मैं स्वयं प्रमाण हूँ। (हो सकता है ऐसा हुनर अन्य क्षेत्र के आदिवासियों के पास भी हो) यहाँ के मुंडा आदिवासी अँगूठे का प्रयोग किए बिना तर्जनी और मध्यमिका अँगुली के बीच तीर को कमान में फँसाकर तीरंदाज़ी करते हैं। रही बात इनके निशाने की तो इस पर सवाल उठाना मूर्खता होगी। तीर से जंगली जानवरों के शिकार की कथा आम है। मेरे परदादा, पिताजी, भैया यहाँ तक कि मैंने भी इसी तरीके से तीरंदाज़ी की है। मेरे लिए यह एकलव्य की खोज है और यह कविता इस तरह एकलव्य से एक संवाद।
घुमन्तू जीवन जीते
उनका जत्था आ पहुँचा था
घने जंगलों के बीच
तेज बहती अनाम
पहाड़ी नदी के पास
और उस पार की कौतुहूलता में
कुछ लोग नदी पार कर गए थे
और कुछ इधर ही रह गए थे
तेज प्रवाह के समक्ष अक्षम
तब तीर छोड़े गए थे
उस पार से इस पार
आख़िरी विदाई के
सरकंडों में आग लगाकर
और एक समुदाय बँट गया था
नदी के दोनों ओर
चट्टानों से थपेड़े खाती
उस अनाम नदी की लहरों के साथ
बहता चला गया उनका जीवन
जो कभी लहरों के स्पर्श से झूमती
जंगली शाखों की तरह झूम उठता था
तो कभी बाढ़ में पस्त वृक्षों की तरह सुस्त होता था
पर पानी के उतर जाने के बाद
मज़बूती से फिर खड़ा हो जाता था
उनके जीवन में संगीत था
अनाम नदी के साथ
सुर मिलाते पपीहे की तरह
जीवन पल रहा था
एक पहाड़ के बाद
दूसरे पहाड़ को लाँघते
और घने जंगल में सूखे पत्तों पर हुई
अचानक चर्राहट से
उनके हाथों में धनुष
ऐसे ही तन उठती थी ।