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एकांत में यशोधरा / मैथिलीशरण गुप्त
Kavita Kosh से
आओ हो वनवासी!
अब गृह भार नहीं सह सकती
देव तुम्हारी दासी!!
राहुल पल कर जैसे तैसे,
करने लगा प्रश्न कुछ ऐसे,
मैं अबोध उत्तर दूँ कैसे?
वह मेरा विश्वासी,
आओ हो वनवासी!
उसे बताऊँ क्या तुम आओ,
मुक्ति-युक्ति मुझसे सुन जाओ--
जन्म-मूल मातृत्व मिटाओ,
मिटे मरण-चौरासी!
आओ हो वनवासी!
सहे आज यह मान तितिक्षा,
क्षमा करो मेरी यह शिक्षा;
हमीं गृहस्थ जनों की भिक्षा,
पालेगी सन्यासी!
आओ हो वनवासी!
मुझको सोती छोड़ गए हो,
पीठ फेर मुँह मोड़ गए हो,
तुम्हीं जोड़कर तोड़ गए हो,
साधु विराग-विलासी!
आओ हो वनवासी!
जल में शतदल तुल्य सरसते
तुम घर रहते, हम न तरसते,
देखो, दो-दो मेघ बरसते
मैं प्यासी की प्यासी!
आओ हो वनवासी!