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एक अपंग बच्चे को देखकर / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
हर शाम देखा जा सकता है
उस बच्चे के चेहरे पर
एक उतावलापन
बाहर जाकर खेलने का
दूसरे बच्चों के साथ
जो रात होते-होते
लुप्त हो जाता था
अन्धकार में
फिर माँ उसके छोटे-छोटे पाँवों को
सजाकर पलंग पर
सुला देती थी
जहाँ से वह करता था
सैर पूरी दुनिया की
अपने सपनों के सहारे ।