Last modified on 20 जुलाई 2014, at 19:36

एक और / रमेश रंजक

एक और टूटी दहलीज
            बूढ़े घर की ।

थके-थके पाँवों को और मिले
सर्पीली राह के छोर
एक घुटन कुहरे-सी क्या फैली
टूट गई गीतों की डोर
बिजली-सी कौन्ध गई खीज
                 यायावर की ।

एक उमर आँखों में बीत गई
चुने नहीं प्रतिमा ने फूल
परिचय कर मौसमी हवाओं से
पर्वत के शीश चढ़ी धूल


धुँधलाई, हर उजली चीज़
                आडम्बर की ।