एक कर्मचारी की डायरी-3 / रणविजय सिंह सत्यकेतु
उनका कहना उनके करने से अलग है
उनका मानना उनके जानने से जुदा
वो हर हँसी का अर्थ निकालते हैं
ग़म और क्षोभ के सहचर
आँसू की हर बूँद को व्यर्थ बताते हैं
हर घड़ी देते हैं नसीहत
कि हमें ठोस और धैर्यवान होना चाहिए
बीच मझधार में ऊँची लहरों से लड़ती
सर्दी, गर्मी, बरसात के थपेड़ों को सहती
नाव की तरह
कि हमें लचीला और मृदु होना चाहिए
बीच बाज़ार में
फ़िकरों, इशारों को झुठलाती
हँसी, हाव-भाव से हामी बटोरती
युवती की तरह
वो चाहते हैं कि हमारी हाज़िरजवाबी
उनके प्रश्नों के सापेक्ष हो
जिज्ञासा देय लक्ष्य की ख़ातिर
विचार किन्तु-परंतु निरपेक्ष हो
नहीं पसंद उन्हें हमारी खुद्दारी
अधिकारों के प्रति जागृति
इसलिए कमजोर नस पकड़
भरते हैं वफ़ादारी का जहर
एक-एक प्रत्येक को तौलकर
करते हैं भावों को तहस-नहस
‘हाँ जी, हाँ जी’ का की-प्वाइंट थमाने के लिए
करते हैं तमाम तिकड़म
चालाक विमर्श
और जमीरवालों को ब्लैकमेल
चुपके से पुचकारकर
देते हैं पीछे धकेल
चतुर शिकारी की तरह
वो हर हँसी का अर्थ निकालते हैं
ग़म और क्षोभ के सहचर
आँसू की हर बूँद को व्यर्थ बताते हैं
उनका कहना उनके करने से अलग है
उनका मानना उनके जानने से जुदा।