भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक चाय की चुस्की / उमाकांत मालवीय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा ।

चुभन और दंशन
पैने यथार्थ के
पग-पग पर घेर रहे
प्रेत स्वार्थ के ।
भीतर ही भीतर
मैं बहुत ही दहा
किंतु कभी भूले से कुछ नहीं कहा ।

एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की ।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है सभी, एक-एक इन्तहा ।

एक क़सम जीने की
ढेर उलझनें
दोनों ग़र नहीं रहे
बात क्या बने ।
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा ।