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एक ज़िंदा अहसास / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
बिस्तर की सलवटों में
बिखरे हुए हैं अक्षर
उन अक्षरों की रूह से
आवाज़ आ रही है
वह जिस्म में बदलकर
कुछ कहना चाह रही है
अक्षर सिमट-सिमटकर
इक शक्ल ले रहे हैं
वो बारिशों का मौसम
भीगे बदल, तपाकर
गुज़री अभी है गरमी
जामुन का पेड़ छतरी
ज्यों झोंपड़ी टपकती
पसरी हुई लबों पे
खामोशियाँ हैं सहमी
कुछ कहना चाह रही हैं
ठीक जिस तरह से
बिस्तर की सलवटों में
लिपटे अक्षरों से
आवाज़ आ रही है
कुछ कहना चाह रही है।