एक पुल जो इतिहास बन गया / कविता भट्ट
सौ योजन पर सेतु बाँधा था, इनसे अच्छे तो बंदर थे,
मुँह चिढ़ा रहे आते-जाते चौरास पुल के अस्थि पंजर थे।
त्रिशंकु सा झूलता एक पुल जो इतिहास बन गया,
अपने भाग्य कोसता लोकतन्त्र का परिहास बन गया।
ढोती हुई निष्पाप भूखे- मजदूरों के पंजर,
अर्धनिर्मित अवशेष लोहा-सरिये-पिल्लर।
हर लहर भूखे लोकतन्त्र की कहानी कहती है,
उपहास करती, नीचे इसके जो नदी बहती है।
भूख उन मजदूरों की, जिनका पाप मात्र था-रोटी,
भूख उनकी भी, असीम थी जिनकी पाचन-शक्ति ।
लोहा तो वे यूँ ही पचा जाते हैं, बिना जुगाली,
और सरिया-सीमेंट तो प्रशिक्षण में ही चबा ली।
सौ योजन सेतु बाँधा था, इनसे अच्छे तो त्रेता के बंदर थे,
मुँह चिढ़ा रहे आते-जाते चौरास पुल के अस्थि पंजर थे।
त्रिशंकु सा झूलता एक पुल जो इतिहास बन गया,
अपने भाग्य कोसता लोकतन्त्र का परिहास बन गया।
अब सुनते हैं कि इस पुल की कथा पर
इसके असफल निर्माताओं का क्या है अनुभव?
निर्लज्ज कहते- हँसी आती, उन मूर्ख बंदरों पर,
जो किसी अपरिचित की स्त्री के हरण पर।
सेतु हेतु वर्षों भूखे-प्यासे संघर्ष करते थे,
और सोने की लंका को जला डालते थे।
हम तो कमीशन की मलाई, लालच-ब्रेड को लगाकर,
कभी इस फ्लेवर और कभी उस फ्लेवर में खाते हैं ।
फिर भी हमारे लोहे, सरिया और सीमेण्ट के पुल
कुछ कृशकाय मजदूरों के शरीरों से ढह जाते हैं।
यदि त्रेता में राम अपने पुल का टेंडर हमसे भरवाते,
हम घाटे सौदा न करते पुल बनाकर भी नहीं बनाते
और मूल्यवान् सोने की सम्पूर्ण लंका बचा लेते।
कुछ बिस्किट ले-देकर ही मामला निबटा लेते।