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एक पूरी ऋतु / लीलाधर जगूड़ी

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भारी-भारी टहनियों का बोझ थामे हुए
दो से पाँच फुट ज़मीन पर खड़े
पेड़
एक-एक रेशे को कड़ा कर रहे हैं

और अपनी तपस्या में
वहाँ तक पहुँचना चाहते हैं
एक वर्ष और बड़ी दृढ़ता
जहाँ भी उनके लिए छिपी हुई है

ये दो से पाँच फुट ज़मीन पर
खड़े पेड़
सौ फ़ुट तक छाया
हज़ार तक हरियाली
फेफड़ों तक हवा
और कोसों तक वसन्त देते हैं

अपने जन्मते ही
जो मोची और दर्ज़ी बन जाते हैं
और सिलना शुरू कर देते हैं
ज़मीन को
पर ख़ुद के बारे में
वे यह भी जानते हैं
कि हमें सींचनेवाले बहुत लोग नहीं हैं

इसलिए उन्हें एक पूरी ऋतु चाहिए
प्यास की नहीं
पानी की एक पूरी ऋतु।