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एक बची हुई खुशी / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
एक बची खुची खुशी को थैले में डाल
जब लौटता है वह उसके सहारे
तो ज़िन्दगी का अगला दिन
पाट देता है उसकी रात रंगीन सपनों से
- सपने जो अधूरी आंकांक्षाओं की पूर्ति ही नहीं
एक संकल्पित भविष्य भी होते हैं।
समझौते पर विवश आदमी से
बस इतनी ही प्रार्थना है मेरी
कि बचे न बचे कुछ
पर बची रहे हर शाम उसके पास
एक थोड़ी-सी खुशी - उसका सहारा
जिसे थैले में डाल
लौट सके वह घर डग भरता
उत्सुक
कि बचे रहें उसके पास भी कुछ सपने
कि बीते न उसकी रात सूनी आँखों में।